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श्री बंशीधर नगर: संसार से मोहभंग किए बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती:जीयर स्वामी जी महाराज

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स्वामी जीयर जी महाराज

श्री बंशीधर नगर: श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज का दर्शन करने के लिए गुरुवार को धनबाद, जमशेदपुर, जपला, भजनिया सहित विभिन्न स्थानों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु भाग्य पाल्हे-जतपुरा गांव स्थित यज्ञ स्थल पर पहुंचे। श्रद्धालु भक्तों को समझाते हुए कहा कि संसार से मोहभंग किए बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती।एक तरफ संसार से मोह और दूसरी तरफ परमात्मा की प्राप्ति ये कभी संभव नहीं है। यह एक नदी के दो किनारे हैं। इसलिए परमात्मा प्राप्ति के लिए संसार से मोहभंग करना ही होगा। जितनी भी सुख सुविधाओं की इच्छा करेंगे उतना ही आप परमात्मा से दूर होते चले जाएंगे। संसार में रहिए परिश्रम कीजिए जीविकोपार्जन कीजिए गृहस्थ आश्रम में रहिए लेकिन ध्यान परमात्मा में लगाए रखें।तभी कल्याण संभव है।प्रकाश वही देता है, जो स्वयं प्रकाशित होता है। जिसका इंद्रियों और मन पर नियंत्रण होता है, वही समाज के लिए अनुकरणीय होता है। जो इंद्रियों और मन को वश में करके सदाचार का पालन करता है, समाज के लिए वही अनुकरणीय होता है। केवल वेश-भूषा, दाढी-तिलक और ज्ञान-वैराग्य की बातें करना संत की वास्तविक पहचान नहीं। उन्होंने कहा कि विपत्ति में धैर्य, धन, पद और प्रतिष्ठा के बाद मर्यादा के प्रति विशेष सजगता, इंद्रियों पर नियंत्रण और समाज हित में अच्छे कार्य करना आदि साधू के लक्षण हैं। 

श्री जीयर स्वामी ने कहा कि मूर्ति की पूजा करनी चाहिए। मूर्ति में नारायण वास करते हैं। मूर्ति भगवान का अर्चावतार हैं। मंदिर में मूर्ति और संत का दर्शन ऑखें बन्द करके नहीं करना चाहिए। मूर्ति से प्रत्यक्ष रुप में भले कुछ न मिले लेकिन मूर्ति-दर्शन में कल्याण निहित है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति से ज्ञान और विज्ञान को प्राप्त किया। श्रद्धा और विश्वास के साथ मूर्ति का दर्शन करना चाहिए।

स्वामी जी ने कहा कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद्य एवं मत्सर से बचना चाहिए। ये आध्यात्मिक जीवन के रिपु हैं। मत्सर का अर्थ करते हुए स्वामी जी ने बताया कि उसका शाब्दिक अर्थ द्वेष – विद्वेष एवं ईर्ष्या भाव है। दूसरे के हर कार्य में दोष निकालना और दूसरे के विकास से नाखुश होना मत्सर है। मानव को मत्सरी नहीं होना चाहिए। अगर किसी में कोई छोटा दोष हो तो उसकी चर्चा नहीं करनी चाहिए। जो लोग सकारात्मक स्वाभाव के होते हैं, वे स्वयं सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। इसके विपरीत नकारात्मक प्रवृति के लोगों का अधिकांश समय दूसरे में दोष निकालने और उनकी प्रगति से ईर्ष्या करने में ही व्यतीत होता है।


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